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Home ब्लॉग ओपिनियन

संविधान बचाने से ज़्यादा ज़रूरी है इसके आन्दोलनकारियों को बचाना

Mukesh Kumar Singh by Mukesh Kumar Singh
August 22, 2020
in ओपिनियन, ब्लॉग, राष्ट्रीय
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bengaluru-protest-dec-17-afp

Students and activists take part in a protest against India's new citizenship law in Bangalore on December 17, 2019 , AFP

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सुप्रीम कोर्ट के वकील महमूद प्राचा के हवाले से शाहीन बाग़ वाले संविधान बचाओ आन्दोलन को जल्द बहाल करने की सुगबुगाहट है। इसी तर्ज़ पर क्या सोशल-डिस्टेसिंग का जोख़िम उठाकर 30 अगस्त को मुहर्रम का जुलूस निकालने की इजाज़त माँगने, देने या नहीं देने को लेकर कहीं तनाव के हालात तो नहीं बन जाएँगे? ऐसे दौर में जब रोज़ाना करीब 65 हज़ार कोरोना पॉज़िटिव के मामले सामने रहे हों, जब स्कूल-कॉलेज निलम्बित हों और रेल-सेवा असामान्य हो, जब मैट्रो-सेवा शान्त हो, होटल-रेस्टोरेंट बन्द हों, जब मॉस्क अनिवार्य हो, तब क्या ऐसी बातें होना ठीक है कि जल्द ही ‘शाहीन बाग़’ की बहाली होगी? संविधान बचाओ आन्दोलन के अगले दौर का वक़्त क्या अभी आने से फ़ायदा होगा? क्या सरकारें इसे होने देंगी? कहीं ये पुलिसिया सख़्ती को ‘आ बैल मुझे मार’ का सन्देश तो नहीं देगी?

दरअसल, भारत पर अभी कोरोना-मारीचिका हावी है। मारीचिका एक आभास है। इसमें रेगिस्तान में दुर्लभ पानी दिखने का भाव है। ये आभास और भाव तो असली होते हैं, लेकिन पानी असलियत नहीं होता। मारीचिका आध्यात्मिक ढोंग नहीं, बल्कि भौतिक भ्रम है। ये वैसा ही दृष्टि-दोष है, जैसे दूर जाती रेल की समानान्तर पटरियाँ परस्पर नज़दीक आती हुई प्रतीत होती हैं। बिल्कुल ऐसे ही दृष्टि-दोष की काली छाया अभी ‘कोरोना-अनलॉक’ को लेकर देश पर मँडरा रही है। इसीलिए कोरोना को पुरी में रथयात्रा बर्दाश्त है, अयोध्या का शिला-पूजन बर्दाश्त है, भोपाल, इम्फाल और जयपुर में सरकारों का लुढ़कना-ढनकना बर्दाश्त है, लेकिन किसी भी किस्म के अनलॉक को ईद की सामूहिक नमाज़, मुहर्रम के जुलूस और संविधान बचाने वाले सीएए-एनआरसी आन्दोलन की सुगबुगाहट बर्दाश्त नहीं है।

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कोरोना-काल के दौरान उत्तर भारत के मुसलमानों में अज़ीबो-ग़रीब हूक उठती रही हैं। उन्हें यहाँ-वहाँ से अपनी बिरादरी के साथ हो रहे भेदभावों की ख़ूब ख़बरें भी मिलीं। देश देख चुका है कि तब्लीगी जमात के नाम पर उठी नफ़रत की लपटों ने ठेले पर फल-सब्ज़ी बेचने वालों की मज़हबी की पहचान को कैसी प्रमुखता दिलायी। गाय के नाम पर लिंचिंग का नयी घटना को भी कोरोना नहीं टाल सका। दिल्ली के दंगों की पुलिसिया जाँच से कई बदरंग पन्ने भी फिज़ाँ में उड़ते देखे गये। ‘370’ की पहली पुण्यतिथि भी निपट गयी। लॉकडाउन की तकलीफ़ों और बेरोज़गारी के बावजूद जो ग़रीब जीवित रहे, उन्हें भी बाढ़ और अस्पतालों की दुर्दशा ने जमकर डुबोया। लेकिन अमीरों के आईपीएल को न सिर्फ़ डूबने से बचाया गया, बल्कि उसे ‘आत्मनिर्भर’ बनने के लिए ‘वोकल फॉर लोकल’ वाले गुरु-मंत्र से भी विशेष छूट दी गयी। आसार हैं कि स्वतंत्रता-दिवस की भाषणबाज़ी भी कतई फ़ीकी नहीं रहेगी।

लेकिन क्या उपरोक्त तमाम मिसालों को देखते हुए मुस्लिम समाज बराबरी की उम्मीद पाल सकता है? ये सही है कि आन्दोलनकारियों पर कभी दमनकारी सत्ता के बर्बर रवैये का ख़ौफ़ नहीं होता। लेकिन आन्दोलन की कमान थामने वालों को अपनी ताक़त और कमज़ोरियों का भी सही अहसास ज़रूर होना चाहिए। कोरोना से पहले चले आन्दोलन के तज़ुर्बों से सीखना भी बहुत ज़रूरी है। मसलन, उस आन्दोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि ये थी कि वो मुसलमानों की नागरिकता के सवाल से शुरू होकर संविधान बचाने की ओर घूम गयी। इसे शिक्षित और सेक्यूलर मुसलमानों से ज़्यादा इसी श्रेणी के हिन्दुओं और इनमें से भी ख़ासतौर पर युवाओं और महिलाओं का अद्भुत समर्थन मिला। सिर्फ़ इसी इकलौते पहलू से भगवा हुक़्मरानों के माथे पर बल पड़े।

फरवरी में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए। दिसम्बर-जनवरी में हुक़्मरानों को अपनी ज़मीनी सच्चाई दिखने लगी थी। मेनस्ट्रीम मीडिया तो मुट्ठी में था लेकिन सोशल मीडिया ने नाक में दम कर रखा था। यही देख हुक़्मरानों को डर सताने लगा कि सेक्यूलर हिन्दुओं और मुसलमानों की एकजुटता यदि उसी रफ़्तार से बढ़ती रहती तो उनके लिए ‘मुश्किल-काल’ बहुत दूर नहीं रहता। इसी एकजुटता में सेंधमारी के लिए दिल्ली में दंगों की पटकथा लिखी गयी। नफ़रत और उन्माद फैलाने वाली भाषणबाज़ी के धारावाहिक चले। दंगों में पुलिस ने वही किया जो उसे हुक़्म मिला, ताकि ‘सबसे ज़्यादा अनुशासित और आज्ञाकारी संस्था’ वाला उसका सिंहासन अक्षुण्य रहे।

अब तो सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं में भगवा-समाजवाद आ चुका है। सभी ने पुलिसिया-संस्कारों को ही अपना आराध्य बना लिया है। विधान सिर्फ़ इतना है कि हुक़्म की तामील होगी, हर हाल में होगी, अवश्य होगी। बाक़ी संविधान की बातें जिन्हें करना है वो नक्कारख़ाने में तूती बजाते रहें। नये भारत में सबको इस आकाशवाणी पर यक़ीन करना होगा कि “पूर्वी लद्दाख में न तो कोई हमारी सीमा में घुस आया है, न ही कोई घुसा हुआ है और ना ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के कब्ज़े में है।”

इसीलिए मुस्लिम समाज चाहे तो गाँठ बाँध लें कि उसकी किसी भी किस्म की एकता से हुक़्मरानों की सेहत पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला। क्योंकि हुक़्मरानों को कपड़ों से पहचानने में महारत हासिल है। लिहाज़ा, शाहीन बाग़ की बहाली के लिए बेताब लोगों को पहचान के बजाय परिचय को तरजीह देना सीखना होगा। उन्हें समझना होगा कि पहचान तो दूर से ही हो जाती है जबकि परिचय के लिए नज़दीक या रूबरू आना पड़ता है। चन्दन-टीका, पगड़ी-टोपी, दाढ़ी-मूँछ, घूँघट-बुर्का, धोती-पजामा – ये सभी पहचान हैं, जबकि सेक्यूलर-कम्यूनल, कट्टर-उदार, जातिवादी-प्रगतिशील आदि परिचय हैं। इसी परिचय के साथ उन्हें जिन हिन्दुओं, युवाओं और महिलाओं का ज़ोरदार समर्थन मिला था, उसी ताक़त से वो मंज़िल पा सकते हैं।

अभी कोरोना के दौरान जिस स्तर का और जैसा ‘अनलॉक’ सामने आया है, उसमें संविधान बचाने की पैरोकारी करने वाले हिन्दुओं, युवाओं और महिलाओं की एकजुटता में मुश्किल होगी। इसीलिए अभी जोख़िम लेने का वक़्त नहीं है। थोड़ा और इन्तज़ार कर लेने में कोई हर्ज़ नहीं है। 15 अगस्त की बातें यदि सरककर 2 अक्टूबर हो जाए तो कोई आफ़त नहीं आ जाएगी। अबकी बार शाहीन बाग़ के आन्दोलनकारियों को संविधान के अलावा अर्थव्यवस्था की ऐतिहासिक दुर्दशा को भी अपने रडार में लेना होगा। इन्हें ये भी समझना होगा कि सरकार किसी भी कीमत पर अपने क़दम वापस नहीं खींचेंगी। वो ज़्यादा से ज़्यादा अपने क़दमों को आगे बढ़ाने का इरादा तब तक टालती रहेगी, जब तक कि उसका पतन न हो जाए। लेकिन इस दौरान आन्दोलनकारियों को हिंसा और हिरासत के उकसावों से भी ख़ुद को बचाना होगा। बीते एक साल में कश्मीर ने भारत, सेक्यूलरों और संविधान की दुहाई देने वालों को अनेक सबक दिये हैं। बहुसंख्यक समाज ने ताली-थाली और दीया-दिवाली के कई नज़ारे देश को दिखाये हैं। इसीलिए आन्दोलनकारियों को समझना होगा कि जो विरोधियों की ताक़त का सही अन्दाज़ा नहीं लगाते, वो विरोधियों का शिकार बनने के लिए अभिशप्त होते हैं। विरोधी जहाँ बात ख़त्म करना चाहते हैं, आन्दोलनकारियों को वहीं से बात शुरू करने की रणनीति अपनानी होगी। वर्ना, उनका सरकार का जाल में फँसना तय है।

Tags: Anti CAA ProtestDemocracyIndiamukesh kumar singhprotestersSave Democrocy Protest
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