अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में विदेश मंत्री रहे यशवन्त सिन्हा आज भी बीजेपी में हैं. उनका बेटा जयन्त सिन्हा, मोदी सरकार में वित्त राज्यमंत्री है. लेकिन पठानकोट आतंकी हमले ने सिन्हा को इस क़दर झकझोर दिया कि उन्होंने मोदी सरकार की विदेश नीति की जमकर ख़बर ली. यशवन्त सिन्हा ने दो टूक कहा कि ‘पाकिस्तान से बातचीत नहीं होनी चाहिए. वर्ना जैसे सरकार मुम्बई हमले को भूल गयी, वैसा ही पठानकोट के साथ होगा.’ सिन्हा की आलोचना को ‘विरोधियों की मक्कारी’ के रूप में नहीं देखा जा सकता. वो ‘मोदी भक्त’ भले न हों लेकिन ‘राष्ट्रद्रोही’ नहीं हो सकते. ये भी नहीं कह सकते कि विरोधी कांग्रेस की इशारों पर सिन्हा मक्कारी कर रहे हैं या फिर वो क्या जानें कि विदेश नीति या पाकिस्तान नीति क्या होती है!

इसीलिए सिन्हा का ये बयान बहुत बड़ा है कि ‘आतंकवाद पर सरकार की पॉलिसी बदली है. इसकी वजह क्या है? यह मैं नहीं जानता. वाजपेयी सरकार में मैं न सिर्फ़ विदेश मंत्री था, बल्कि विदेश मामलों में बीजेपी का प्रवक्ता भी था. हमने पाकिस्तान से साफ़ कहा था कि आतंकवाद और बातचीत एक साथ चल सकते. 2004 में पाकिस्तान ने इस पर रज़ामन्दी भी दी थी. लेकिन वो हमेशा ज़ुबानी हामी भरता है. क़ाग़जों पर कभी सहमति नहीं जताता. वो कहता था कि ये आतंकवादी ‘नॉन स्टेट ऐक्टर्स’ हैं. हम क्या कर सकते हैं? लेकिन अगर हाफ़िज़ सईद वहां से आग उगल रहा है तो पाकिस्तान ज़िम्मेदार कैसे नहीं है?
भारत को यह बात समझनी चाहिए कि पाकिस्तान बातचीत की बातें सिर्फ़ इसलिए करता है कि ताकि उसे अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर इज़्ज़त मिलती रहे.’ यशवन्त सिन्हा ने मोदी के विदेश दौरों में सुषमा की ग़ैरमौजूदगी पर भी चुटकी ली. उन्होंने कहा, ‘ऐसी कोई विदेशी मीटिंग नहीं होती थी, जिसमें अटलजी मुझसे नहीं कहते थे कि आप मेरे साथ चलिए. लेकिन सुषमा तो विदेश मंत्री से ज़्यादा ओवरसीज इंडियंस की मंत्री नज़र आती हैं. सुषमा से जुड़ी जो भी ख़बरें सामने आती हैं, उसमें सिर्फ़ प्रवासी भारतीयों का हित होता है. विदेशी नीति पर उनका बयान कम ही होता है.’
सिन्हा की तरह शिवसेना को भी राष्ट्रद्रोही या हिन्दुत्व विरोधी तो नहीं कहा जा सकता. वो एनडीए का घटक दल भी है. इसीलिए ‘सामना’ में लिखी शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की बातों को भी शुभचिन्तकों की आलोचना ही मानना पड़ेगा. उद्धव लिखते हैं कि ‘विपत्ति के समय सरकार के विरोध में बोलना ठीक नहीं. देश की सुरक्षा का मामला हो सरकार का समर्थन करो. लेकिन सुरक्षा को लेकर क्या सरकार गम्भीर है? सिर्फ़ 6-7 आतंकियों ने हमारे ख़िलाफ़ युद्ध कर दिया. जिस बड़ी फौज़ का ढोल हम बजाते रहते हैं वो पठानकोट में फोड़ दिया गया. सीमा ही नहीं आतंरिक सुरक्षा भी धाराशायी हो गयी.’

सीधे नरेन्द्र मोदी को आड़े हाथ लेते हुए उद्धव ने लिखा कि ‘अब दुनिया की तरफ़ नहीं बल्कि अपने देश पर ध्यान देने का वक़्त है. आतंकी घुसे तो दुनिया मदद के लिए नहीं दौड़ी. मोदी जब प्रधानमंत्री नहीं थे तब उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था, बन्दूक की गोली की गूंज में वार्ता कैसे हो सकती है? मोदी का उस समय किया गया सवाल उचित था. हमें वही मोदी चाहिए. आज भी बन्दूक और तोप की आवाज़ से देश के कान पक गये हैं.’
इसमें कोई शक़ नहीं कि मोदी सरकार भी पाकिस्तान के झांसे में आ गयी. 1999 में नवाज़ शरीफ़ से दोस्ती निभाने के लिए बस लेकर लाहौर गये और बदले में मिला कारगिल युद्ध. उसी साल जसवन्त सिंह, आतंकवादियों को छोड़ने कन्धार गये थे. 2001 में संसद पर हमले के बाद वाजपेयी ने ‘आर-पार की लड़ाई’ का वादा किया था. थोड़े समय बाद वो परवेज़ मुशर्रफ़ से दोस्ती का हाथ मिला रहे थे. मनमोहन सरकार की पाकिस्तान नीति पर हमला बोलते हुए प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेन्द्र मोदी से पूछा गया था कि ‘यदि मुम्बई हमले के वक़्त आप इन्चार्ज़ होते तो क्या करते?’ मोदी का जबाव था, ‘जो मैंने गुजरात में किया वो करके दिखाता, मुझे देर नहीं लगती. मैं आज भी कहता हूं, पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देना चाहिए, ये लव लेटर लिखना बन्द कर देना चाहिए. प्रणव मुखर्जी (तत्कालीन रक्षा मंत्री) रोज़ एक चिट्ठी भेज रहे हैं. और वो सवाल भेज रहे हैं, ये जवाब देते फ़िरते हैं. ग़ुनाह वो करें और जवाब भारत सरकार दे रही है.’
मोदी से अगला सवाल था, ‘लेकिन इंटरनैशनल प्रेशर है, उसका भी तो ख्याल रखना पड़ेगा भारत सरकार को.’ इस पर मोदी का जबाव था, ‘इंटरनैशनल प्रेशर पैदा करने की ताक़त आज हिन्दुस्तान में है. 100 करोड़ का देश है. पूरी दुनिया पर प्रेशर आज हम पैदा कर सकते हैं जी. मैं तो हैरान हूं जी, पाकिस्तान हमको मारकर चला गया, पाकिस्तान ने हम पर हमला बोल दिया मुम्बई में और हमारे मंत्री जी अमेरिका गये और रोने लगे. ओबामा, ओबामा, पाकिस्तान हमको मारकर चला गया, बचाओ, बचाओ. ये कोई तरीक़ा होता है क्या? पड़ोसी मारकर चला जाए और अमेरिका जाते हो, अरे पाकिस्तान जाओ ना.’ फिर पूरक प्रश्न था, ‘क्या तरीका होता है?’ मोदी का जबाव था, ‘पाकिस्तान जिस भाषा में समझे, समझाना चाहिए.’

मोदी की आज चाहे जो लाचारी हो, लेकिन देश उनका ये ओजपूर्ण भाषण कभी भूल नहीं सकता. पठानकोट जैसे हमले देश पर पहले भी होते रहे हैं. इनका किसी पार्टी विशेष की सरकार के सत्ता में होने से कोई नाता नहीं है. कोई ये दावा नहीं कर सकता कि भविष्य में इनकी पुनरावृत्ति नहीं होगी. इसीलिए दूरदर्शी नेता वही कहलाएगा जो आज बोलने से पहले इस बात की परवाह करे कि आगे क्या उसके बयान का क्या हश्र हो सकता है! मोदी राज में ऐसी चूक अन्य महारथियों ने भी ख़ूब की है. सबसे पहले तो मोदी के शपथ-ग्रहण में नवाज़ शरीफ़ को न्यौता देकर अपनी पीठ ख़ुद ठोकी जाती है. मोदी का ऐसा गुणगान किया जाता है, जो ऐतिहासिक था. फिर सीमा पर गोली-बारी होती है तो कहा जाता है कि हम ‘मुंह-तोड़ जवाब’ दे रहे हैं. यही बोली लगातार दोहरायी जाती है.
इसके बाद शान्ति बहाली के लिए बातचीत के जिस रास्ते को तैयार किया जाता है, उस पर पहले से तमाम बारूदी सुरंगी बिछी होती हैं. कुछ ही महीने पहले विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा था कि जब तक मुम्बई हमलों का सरगना ज़की-उर-रहमान लखवी जेल से बाहर रहेगा, तब तक बातचीत नहीं हो सकती. दिसम्बर 2014 में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने पाकिस्तान को ‘कड़ी कार्रवाई’ की चेतावनी दी थी. इसके बाद पर्रिकर ने जनवरी 2015 में भी चेतावनी दी कि इस्लामाबाद ‘कोई सबक नहीं सीखने को तैयार नहीं है.’ इसी तरह, जब सीमा पर धुआंधार गोलीबारी चल रही थी, तब ऊफा में सचिव स्तरीय बातचीत का समझौता हो जाता है. फिर हुर्रियत से बात नहीं की जाए, इसे लेकर बातचीत नहीं हो पाती.

थोड़े ही समय बाद अमेरिका में नवाज़ शरीफ़ मुस्कुराकर मिलते हैं तो नरेन्द्र मोदी का दिल पिघल जाता है. आनन-फ़ानन में बैंकाक में गुपचुप बातचीत का ख़ाक़ा तैयार हो जाता है. उसके बाद ‘बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से’ विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भी इस्लामाबाद का दौरा कर आती हैं. इतने बड़े-बड़े नेता न जाने ये कैसे भूल जाते हैं कि पाकिस्तानियों का तो डीएनए ही ‘मुंह में राम बग़ल में छुरी’ का रहा है. सांप क्या दुनिया को बताता फ़िरता है कि उसके मुंह में ज़हर भरा पड़ा है, जो पाकिस्तानी बताएंगे! लेकिन मोदी जी को इतिहास रचने की आदत और इतनी ज़ल्दबाज़ी है कि सारी दुनिया को चमत्कृत करके हुए वो लाहौर जा पहुंचे. पता नहीं उन्होंने किस भाषा में बातें कीं कि उधर से न सिर्फ़ भारत में ‘पठानकोट’ आया बल्कि अफ़ग़ानिस्तान के मज़ार-ए-शरीफ़ में भारतीय दूतावास पर भी फ़िदाईन दस्तों को ‘अमन का पैगम्बर’ बनाकर भेजा गया.
पठानकोट की वजह से भी सरकार में बैठे बयान बहादुरों के हौसलों पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है. केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने आज ही कहा है कि ‘हम पाकिस्तान से दोस्ती बनाना चाहते हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम कमज़ोर हैं. अगर पाकिस्तान आतंक की मदद से भारत में इस तरह की घटनाओं को अंज़ाम देता है तो हम ईंट का जवाब पत्थर से देंगे.’ पाकिस्तान के भी कान पक गये होंगे, भारतीय नेताओं से इस तरह के बयान सुनते-सुनते! इसीलिए जब ज़मीनी हक़ीक़त ऐसी तो विरोधियों को ‘राष्ट्रद्रोही’ बताना ही तो राष्ट्रधर्म क्यों नहीं होगा! पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कार्रवाई तो जब होगी, तब होगी. लेकिन सरकार को विरोधियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की तैयारी फ़ौरन करनी चाहिए.
ज़रा इनकी ज़ुर्रत तो देखिए! जनता दल यूनाइटेड के प्रवक्ता नीरज कुमार ने कह दिया कि ‘देश को 56 इंच के सीने वाला नहीं, बल्कि छह इंच के दिमाग वाला प्रधानमंत्री चाहिए. लेकिन मोदी तो विदेश नीति के ‘आइटम बॉय’ बन चुके हैं.’ इसी तरह, कांग्रेस के प्रवक्ता आनन्द शर्मा भी क्या ये पूछकर लक्ष्मण-रेखा नहीं लांघ रहे कि ‘ऐसा कौन सा आश्वासन मिला था जिसके बाद मोदी अचानक लाहौर चले गये?’ वैसे अगले ही पल शर्मा ये कहकर नरम पड़ जाते हैं कि ‘मौज़ूदा हालात में देश की आवाज़ एक होनी चाहिए. कांग्रेस, पाकिस्तान के साथ बातचीत की पक्षधर है. लेकिन देश को नरम या कमज़ोर नहीं पड़ना चाहिए.’ बहरहाल, कांग्रेस और जेडीयू जैसे विरोधियों को तो मक्कार बताया जा सकता है. लेकिन यशवन्त सिन्हा और उद्धव ठाकरे जैसे शुभचिन्तकों के बारे में नरेन्द्र मोदी क्या कहना चाहेंगे?