एक मुहावरा है, ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’. यही निचोड़ है नैशनल हेराल्ड मामले का. जिसे लेकर सोनिया और राहुल गाँधी को निपटा देने का मंसूबा पाला है बीजेपी के स्वनाम धन्य नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने. लेकिन इससे भी विचित्र बात ये है कि स्वामी के पीछे आधे-अधूरे मन से ही सही बीजेपी को भी ख़ड़ा होना पड़ा है. बीजेपी की अब लाचारी ये हो चुकी है कि उसे स्वामी के उन मनगढ़न्त तर्कों और निष्कर्षों का साथ देना पड़ा रहा है जो मूलतः एक निजी संस्था के ख़िलाफ़ एक निजी व्यक्ति की ओर से की गयी शिकायत का मामला है. इसमें किसी तरह की सरकारी रकम या सम्पत्ति का हेर-फेर नहीं है. इसीलिए ये सारा मामला मरी पड़ी काँग्रेस को संजीवनी देने का बन गया है. मज़ेदार ये भी है कि काँग्रेस के लिए ये पुण्य-कार्य उसके धुर-विरोधी सुब्रमण्यम स्वामी कर रहे हैं.
सुब्रमण्यम स्वामी की दलीलें कितनी कमज़ोर हैं, इसका अन्दाज़ा 19 दिसम्बर को मेट्रोपॉलिटन मज़िस्ट्रेट लवलीन की दो संक्षिप्त टिप्पणियों से लगाया जा सकता है. पहला, ‘at this stage, without evidence, charges can’t be serious in magnitude’ यानी ‘इस मौके पर, ऐसे सबूत नहीं है, जिनसे आरोपों को गम्भीर माना जा सके’. दूसरा, ‘Accused are reputed persons having deep root in society and can be granted bail’ यानी ‘आरोपी, ऐसे प्रतिष्ठित लोग हैं जिनकी समाज में गहरी पैठ है’. ऐसे में ये सवाल भी उठ सकता है कि यही बातें 7 दिसम्बर को आये दिल्ली हाई कोर्ट के उस आदेश में क्यों नहीं थीं, जिसमें सोनिया-राहुल को भेजे गये सम्मन को ख़ारिज़ करने की अपील को जस्टिस सुनील गौड़ ने ठुकरा दिया था. या फिर, उस दिन जस्टिस सुनील गौड़ ने अपने आदेश में ये कैसे लिख दिया कि मामला आरोपियों के आचरण पर कई सवाल ख़ड़े करता है. इससे ‘आपराधिकता की बू’ आती है यानी ‘All this smacks of criminality’.
इसी एक शब्द ‘Criminality’ को लेकर राजनीति गरमा गयी. काँग्रेस इसे नाजायज़ और बीजेपी जायज़ ठहराने लगी. जबकि सच क्या है, यही तो अदालत में तय होना है? अदालत अभी अपने बेहद शुरुआती दौर में है. इसे समझने के लिए हमें पूरी क़ानूनी प्रक्रिया को ठीक से जानना होगा. नैशनल हेराल्ड एक निजी कम्पनी है. सुब्रमण्यम स्वामी को इसमें कुछ ‘गड़बड़ियों’ का पता चला. 2011-12 से वो इसके पीछे लगे हुए हैं. उन्होंने जाँच के लिए तमाम चिट्ठियाँ लिखीं. स्वामी तब बीजेपी में नहीं थे. वो एक व्यक्ति वाली उस ‘जनता पार्टी’ को चला रहे थे जो 1977 में बनी थी. बीते कई दशकों में स्वामी की पहचान एक शिक्षित लेकिन दिग्भ्रमित और शरारती नेता की बनती चली गयी.
सुब्रमण्यम स्वामी ने अपनी निजी हैसियत से जो शिकायत दर्ज़ करवायी, उसकी जाँच प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने की. लेकिन ED को मामला बेजान लगा. लिहाज़ा, उसने उसे बन्द कर दिया. फिर मोदी सरकार ने ED के उस निदेशक को ही हटा दिया जिसने मामला बन्द करने लायक पाया था. अब तक स्वामी बीजेपी में आ चुके थे. उनके प्रभाव में आकर सरकार से नैशनल हेराल्ड मामले को दोबारा खोलने का रास्ता चुना. स्वामी ने एक शिकायत सीधे कोर्ट में भी दर्ज़ करवायी. इस पर कोर्ट ने सोनिया-राहुल समेत छह आरोपियों को सम्मन भेज दिया. सम्मन भेजना अदालत का पहला और बुनियादी काम है. किसी को सम्मन भेजने का सिर्फ़ इतना मतलब है कि अदालत चाहती है कि अमुक व्यक्ति उसके सामने हाज़िर होकर अपना पक्ष रखें.
काँग्रेस ने सम्मन भेजने की इसी बुनियादी कार्यवाही को हाईकोर्ट में चुनौती दी. जबाव में हाईकोर्ट ने कहा कि आरोपियों को निचली अदालत के बुलावे (सम्मन) का सम्मान करना चाहिए. दरअसल, हाईकोर्ट के लिए सम्मन को ख़ारिज़ करना आसान नहीं होता. क्योंकि ऐसा करने से पहले उसे आरोपों की जाँच करने होती और सबूतों की सत्यता को परखना होता. जो मामले की मौजूदा स्थिति में सम्भव ही नहीं था, क्योंकि ये काम निचली अदालत का होता है. लेकिन हाईकोर्ट ने ज़रा अति उत्साह दिखाते हुए अपने आदेश में ये भी लिख दिया कि उसे इसमें ‘आपराधिकता की बू’ आती है. आमतौर पर ऐसे मामलों में ऊपरी अदालतें ऐसा कुछ भी कहने से परहेज़ करती हैं, जिससे मामले के गुण-दोष (Merit of the case) को लेकर कोई धारणा बनायी जा सके. ये हाईकोर्ट के आदेश का कमज़ोर पहलू है. इसीलिए काँग्रेस में इस बात पर ख़ासा मंथन हुआ कि क्या इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाए.
बीजेपी ने जैसे ही ‘आपराधिकता की बू’ वाले जुमले को सियासी तौर पर भुनाने का रास्ता चुना. वैसे ही काँग्रेस इसे राजनीतिक द्वेष बताते हुए मातम मनाने लगी. इसी से कई दिनों तक संसद का कामकाज़ बाधित हुआ. अब इस मामले ने ऐसा सियासी रंग पकड़ लिया है कि ये एक मेगा टीवी धारावाहिक की तरह सालों-साल गरमाया रहेगा. बहरहाल, अभी तो सबसे पहले सबसे निचली अदालत को ये तय करना है कि वो ‘बू’, दुर्गन्ध है या सुगन्ध या गन्ध रहित. न्यायपालिका का ढर्रे को देखते हुए कोई नहीं जानता कि इस काम में कितने वर्ष लगेंगे. निचली अदालत के फ़ैसलों का ऊपरी अदालतों में भी ज़ोरदार दौड़ चलेगी. तमाम हाई-प्रोफाइल मामलों की तरह नैशनल हेराल्ड मामला भी सर्वोच्च स्तर पर जाये बग़ैर नहीं निपटेगा.
इस दौरान सुब्रमण्यम स्वामी ख़ूब ख़बरों में बने रहेंगे. काँग्रेस, मुक़दमे को हर मोड़ को सियासी रूप से भुनाएगी. बीजेपी, उस पर भ्रष्टाचारी होने और नकारात्मक राजनीति करने का आरोप लगाएगी. लेकिन इन सबसे अलग, सोनिया-राहुल और काँग्रेस को मुफ़्त में इतनी मीडिया पब्लिसिटी मिलेगी कि उसे अपने दिन फ़िरते हुए दिखायी देंगे. बीजेपी को इस बात का अहसास नहीं है कि जनता ने उसे देश का तेज़ी से विकास करने और जनता की बुनियादी समस्याएँ दूर करने के लिए जनादेश दिया है. काँग्रेस को तो जनता ने ख़ुद ही निपटाकर 44 सीटों पर समेट दिया था. इसीलिए, बीजेपी को काँग्रेस की नहीं बल्कि अपनी उपलब्धियों की परवाह करनी चाहिए.
लेकिन ज़िन्दगी भर विपक्ष में बैठी बीजेपी भी अपनी आदतों से लाचार है. जनादेश पाते ही वो काँग्रेस रहित भारत बनाने का सपना देखने लगी. इसे जनता ने नकार दिया. मोदी-लहर के पस्त पड़ते ही जनता लगातार हर चुनाव में बीजेपी को लताड़ रही है. दिल्ली, उत्तर प्रदेश के उपचुनाव, बिहार, गुजरात के स्थानीय निकाय के चुनाव के अलावा मध्य प्रदेश की रतलाम और झारखंड की लोहरदगा सीट का उपचुनाव भी बीजेपी हार गयी. पार्टी को ये तमाम झटके अपने मज़बूत गढ़ों में क्यों लग रहे हैं? ऐसा क्या हुआ है कि मरणासन्न हो चुकी काँग्रेस में साँस लौट रही है? याद रखिए, ये काँग्रेस के बेहतर होने के लक्षण नहीं, बल्कि बीजेपी के बदतर होने के संकेत हैं.
बीजेपी के पुराने नेता भी स्वामी के व्यक्तित्व से बहुत अच्छी तरह से वाकिफ़ थे. पार्टी के बड़े नेता स्वामी के साथ सिर्फ़ शिष्टाचार का नाता रखते थे. सियासी जमात में हर बड़ा नेता ये जानता है कि स्वामी से दोस्ती रखने का कोई फ़ायदा नहीं हो सकता, बल्कि नुकसान की आशंका अवश्य बढ़ जाती है. स्वामी भी हाशिये पर पड़े-पड़े अपना वक़्त काट रहे थे. सुर्ख़ियों में रहने के लिए वो जब-तब ऐसा मुद्दा उछालते रहते हैं जिसका ताल्लुक नेहरू-गाँधी परिवार और जयललिता से रहता हो. इसी वजह से मीडिया भी उन्हें ख़ूब तव्वज़ो देने के लिए मज़बूर होता रहा. अदालत में मुक़दमा ठोंककर अपनी सियासत के चमकाये रहने के अलावा स्वामी की कोई ज़मीनी हस्ती नहीं है.
लोकसभा चुनाव से पहले स्वामी ने काँग्रेस को कोसने के साथ-साथ नरेन्द्र मोदी का ख़ूब गुणगान करना शुरू कर दिया. इससे उन्हें बीजेपी में जगह मिल गयी. अब सोनिया-राहुल पर हमला तेज़ करने की वजह से उन्हें बड़ा सरकारी बंगला और ज़ेड प्लस सुरक्षा का तोहफ़ा भी मिल चुका है. लेकिन ऐसा कब हुआ है कि राजनेताओं के ख़िलाफ़ चली क़ानूनी लड़ाई को सियासी मुद्दा नहीं बनाया गया हो? काँग्रेस भी आज यही कर रही है. उसके लिए तो ‘बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा’ वाली दशा है. ऐसे मामलों ने ही उसे अज्ञासवास से निकालकर मुख्य धारा में खड़ा कर दिया है. यही उसके लिए संजीवनी है. मज़ेदार बात ये है कि ये संजीवनी विपक्षी ख़ेमे से सौग़ात के रूप में आ रही है! लेकिन मोदी सरकार के रणनीतिकारों को न जाने क्यों इसका नफ़ा-नुकसान दिखायी नहीं दे रहा है.