चुनाव आयोग, क्या
सरकारी कर्मचारियों को मतदाता नहीं मानता? क्योंकि
यदि सरकारी कर्मचारी भी मतदाता हैं तो चुनाव की घोषणा होने या आदर्श चुनाव संहिता
के लागू होने बाद इन्हें रिझाने या बहलाने के लिए किसी रियायत या राहत पैकेज़ का
एलान नहीं हो सकता। लिहाज़ा, ये सवाल तो है कि अर्थव्यवस्था में माँग बढ़ाने के
लिए 12 अक्टूबर को घोषित वित्त
मंत्री निर्मला सीतारमण के ‘डिमांड
इंफ़्यूज़न’ पैकेज़ को आचार
संहिता का उल्लंघन क्यों नहीं माना गया?
इसी पैकेज़ में ‘LTC कैश
वाउचर’ और ‘स्पेशल
फ़ेस्टिवल एडवांस’ स्कीम का शिगूफ़ा
छोड़ा गया है।
भले ही राजनीतिक दलों
ने चुनाव आयोग से शिकायत नहीं की हो, लेकिन निष्पक्ष चुनाव करवाने का संवैधानिक
दायित्व निभाते हुए चुनाव आयोग ने आचार संहिता के उल्लंघन का स्वतः संज्ञान क्यों
नहीं लिया? दलील हो सकती है कि बिहार
के 7.26 करोड़ मतदाताओं में से केन्द्र सरकार के कर्मचारियों की संख्या बहुत
मामूली है, इसीलिए राष्ट्रीय स्तर की नीति के एलान में आचार संहिता बाधक नहीं मानी
गयी। हालाँकि, उल्लंघन यदि है तो है। इसे छोटा-बड़ा बताना बेमानी है। नियमानुसार
वित्त मंत्री को चुनाव आयोग की पूर्वानुमति से ही एलान करना चाहिए था। अभी तक
चुनाव आयोग या वित्त मंत्रालय ने पूर्वानुमति को लेकर कोई स्पष्टीकरण नहीं है।
वैसे, दिलचस्प ये भी
है कि वित्त मंत्री की घोषणा में 28,000 करोड़ रुपये के ‘डिमांड
इंफ़्यूज़न’ का जैसा सब्ज़बाग़ दिखाया
है, वैसा फ़ायदा अर्थव्यवस्था को कतई नहीं होने वाला। सच तो ये है कि मई में भी घोषणाओं
की झड़ी लगाकर वित्तमंत्री ने जिस ढंग से 20-21 लाख करोड़ रुपये वाले ‘आत्मनिर्भर
पैकेज़’ का झाँसा देश के आगे
परोसा था, उसी तरह अभी केन्द्रीय कर्मचारियों को झुनझुना थमाया गया है। इसे सरकारी
लॉलीपॉप, खयाली पुलाव, हवाई क़िला और मुंगेरी लाल के हसीन सपने की तरह भी देख सकते
हैं। इसी कड़ी में, भारी आर्थिक दवाब से जूझ रहे राज्यों के लिए पेश 12,000 करोड़
रुपये का ब्याज़-मुक्त पैकेज़ भी महज ‘खोदा
पहाड़ निकली चुहिया’ ही है।
DA काटा
सबका, राहत कुछेक को
केन्द्र
सरकार के 48.34 लाख कर्मचारी और 65.26 लाख पेंशनर्स हैं। राज्यों के कर्मचारियों
और पेंशनधारियों की संख्या इसकी कऱीब डेढ़ गुनी है। कुलमिलाकर, 137 करोड़ की आबादी
में से 2 फ़ीसदी लोगों की जीविका सरकारी नौकरियों या पेंशन से चलती है। कोरोना
संकट में केन्द्र सरकार ने 23 अप्रैल को अपने सभी
कर्मचारियों और पेंशनर्स के महँगाई भत्ते को दो साल के लिए ख़त्म कर दिया। तब
बताया गया कि इससे केन्द्र सरकार के खर्च में सालाना 21,000
करोड़ रुपये की कटौती हुई।
लेकिन अब ‘ब्याज़-मुक्त कर्ज़’
का ‘तोहफ़ा’
सिर्फ़ कर्मचारियों के लिए है। वित्त मंत्री ने पेंशनर्स का पत्ता काट दिया। हालाँकि,
लॉकडाउन से पहले 13 मार्च
को कैबिनेट ने दोनों तबकों के लिए महँगाई भत्ते को 17
से
बढ़ाकर 21 प्रतिशत करने की मंज़ूरी दी थी।
कोरोना से आयी मन्दी
से सबकी आमदनी प्रभावित हुई। पक्की तनख़्वाह और सुरक्षित सरकारी नौकरियाँ करने
वालों की भी आमदनी घटी। इनके महँगाई भत्ते का छमाही इज़ाफ़ा अब जनवरी 2022 तक तो नहीं
बढ़ने वाला। आगे का पता नहीं। बहरहाल, वित्त मंत्रालय के अर्थशास्त्री अफ़सरों ने ‘एलटीसी
कैश वाउचर’ और ‘स्पेशल
फ़ेस्टिवल एडवांस’ स्कीम की जैसी रूपरेखा
बनायी, उसमें पेंशनर्स की अनदेखी लाज़िमी थी, क्योंकि सिर्फ़ नियमित सरकारी कर्मचारी ही लीव
ट्रैवल कंसेशन (LTC)
और फ़ेस्टिवल एडवांस के हक़दार होते हैं। पेशनर्स इसे नहीं पा सकते।
झुनझुना
है LTC कैश
स्कीम
लीव
ट्रैवल कंसेशन (LTC)
की कैश वाउचर स्कीम से
पर्दा हटाते हुए वित्तमंत्री ने बताया कि ‘सरकार
को लगता है कि कोराना प्रतिबन्धों के दौरान सरकारी कर्मचारियों ने काफ़ी रुपये बचाये
हैं’। लिहाज़ा, खयाली पुलाव
पकाया गया कि यदि 31 मार्च 2021 तक सरकारी कर्मचारी अपनी बचत को खर्च कर दें तो
अर्थव्यवस्था को संजीवनी मिल जाएगी। आँकड़ा तैयार हुआ कि LTC
कैश
वाउचर स्कीम की बदौलत 7,575 करोड़ रुपये सरकारी ख़ज़ाने से निकलकर कर्मचारियों के
पास पहुँच सकते हैं। इसमें केन्द्रीय कर्मचारियों का हिस्सा 5,675 करोड़ रुपये का होगा
तो सरकारी बैंकों तथा केन्द्रीय उद्यमों (पीएसयू) के कर्मचारियों की हिस्सेदारी 1,900
करोड़ रुपये की होगी।
वित्त
मंत्री ने इसी 7,575 करोड़ रुपये को आयकर-मुक्त बनाने की ‘सरकारी
दरियादिली’ दिखायी और बताया कि राज्य
सरकारों और निजी क्षेत्र के कर्मचारी भी गाइडलाइंस का पालन करके ‘LTC
कैश
वाउचर स्कीम’ से निहाल हो सकते हैं। वित्तमंत्री
का सरकारी दावा है कि इस ‘क्रान्तिकारी’
स्कीम की बदौलत अर्थव्यवस्था में क़रीब 19,000 करोड़ रुपये की माँग पैदा हो जाएगी।
ये भी हवाई क़िला ही है कि भारी वित्तीय तंगी झेल रहीं राज्य सरकारें भले ही अपने
कर्मचारियों को नियमित वेतन नहीं दे पा रही हों, लेकिन निर्मला सीतारमन के ‘डिमांड
इंफ़्यूज़न’ पैकेज़ की क़ामयाबी
के लिए वो अपने कर्मचारियों को ‘टैक्स-फ़्री
एलटीसी कैश’ का भुगतान ज़रूर
करेंगी। ताकि अर्थव्यवस्था में 9,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त माँग पैदा हो जाए और
चुटकी बजाकर 28,000 करोड़ रुपये के पैकेज़ का सब्ज़बाग़ तैयार हो जाए।
गाइडलाइंस
का लॉलीपॉप
नियमित केन्द्रीय कर्मचारी
चार साल में एक-एक बार ‘एलटीसी’
और ‘होम टाउन’
जाने-आने
का किराया पाते हैं। इसका मौजूदा ‘ब्लॉक
इयर’ 2018 से 2021 है। एलटीसी के
तहत देश में कहीं भी सपरिवार पर्यटन पर खर्च हुए वाहन किराये की भरपाई होती है तो ‘होम
टाउन’ में पैतृक स्थान आने-जाने
का किराया सरकार देती है। इनमें अफ़सरों का तबक़ा जहाँ हवाई किराया पाता है वहीं
बाक़ी कर्मचारी राजधानी एक्सप्रेस के एसी-3 का किराया सरकार से ले सकते हैं। कर्मचारी
चाहें तो ‘एलटीसी’
को ‘होम टाउन’
में
बदल भी सकते हैं।
सरकार देख रही थी कि
कोरोना प्रभाव में उसके एलटीसी या होम-टाउन वाले लाभार्थी ठंडे हैं। इन्हें लुभाने
के लिए ऐसी ‘पर्यटन-विहीन एलटीसी’
की नीति बनी जिसमें कर्मचारी ऐसे सामान की खरीदारी का बिल करके अपनी एलटीसी भुना सकते
हैं जिस पर 12 फ़ीसदी या अधिक जीएसटी लागू हो। ताकि ऐसा न हो कि कर्मचारी फ़र्ज़ी
बिल लगाकर सरकार से तो रकम ले लें लेकिन उसे बाज़ार में खर्च नहीं करें। वर्ना, ‘डिमांड
इंफ़्यूज़न’ पर पानी फिर जाता।
दूसरी ओर, निजी क्षेत्र के कर्मचारी साल भर में एक महीने का मूल-वेतन (बेसिक पे)
एलटीसी के रूप में पाते हैं। लेकिन ये उनके वेतन या ‘कॉस्ट
टू कम्पनी’ का हिस्सा होता है।
अलबत्ता, इसकी रकम हर दूसरे साल ही टैक्स-फ़्री होती है।
‘तीन
लगाओ एक पाओ’ की
शर्त
एलटीसी कैश वाउचर
स्कीम का लाभ उठाने की अगली शर्त तो बड़ा छलावा है, क्योंकि इसमें कर्मचारियों को
एलटीसी की रकम पर टैक्स बचाने के लिए इसके मुक़ाबले तीन गुना ज़्यादा दाम का सामान
ख़रीदना होगा। यानी, यदि कर्मचारी 50 हज़ार रुपये के एलटीसी भत्ते का हक़दार है तो
उसे स्कीम का फ़ायदा लेने के लिए 1.5 लाख रुपये के सामान खरीदने होंगे। ज़्यादातर कर्मचारियों
के लिए 50 हज़ार पर आयकर बचाने के लिए अपनी बचत से एक लाख रुपये निकालकर खर्च करना
न तो आसान होगा और ना ही व्यावहारिक। इससे उन्हें शायद ही कोई खुशी या सन्तोष मिले।
फिर भी यदि कर्मचारी हिम्मती निकला तो उसके खर्च से सरकार कम से कम 18 हज़ार रुपये
बतौर जीएसटी ज़रूर पा जाएगी।
दरअसल, नार्थ ब्लॉक
में बैठे वित्त मंत्रालय के अफ़सरों ने हिसाब लगाया कि एलटीसी लेने वालों को
घूमने-फिरने, खाने-पीने और होटल का किराया तो अपनी बचत से ही भरना पड़ता है। इससे अर्थव्यवस्था
में जो माँग पैदा होती वो 1.5 लाख रुपये की ख़रीदारी से पैदा हो सकती है। एलटीसी के
लाभार्थियों को दस दिन के अर्जित अवकाश यानी ‘अर्न
लीव’ को भुनाने यानी ‘लीव
इनकैशमेंट’ की सुविधा भी मिलती है।
आमतौर पर ये ‘टैक्सेबल इनकम’
रकम
होती है। लेकिन इसे ही वित्तमंत्री ने अभी ‘कर-मुक्त’
बनाकर कर्मचारियों को ‘बड़ा
तोहफ़ा’ दिया है।
वास्तव में, ये
तोहफ़ा भी एक झाँसा ही है। इसे उदाहरण से समझिए। यदि किसी कर्मचारी का दस दिन का
वेतन 25 हज़ार रुपये है तो 31 मार्च 2021 तक एलटीसी कैश वाउचर स्कीम का लाभ लेने पर
ये रकम ‘नॉन टैक्सेबल’
मानी
जाएगी। आमतौर पर ‘लीव इनकैशमेंट’
वही कर्मचारी लेते हैं जो इससे पैदा होने वाले टैक्स की देनदारी को ‘मैनेज़’
करने में सक्षम हों। बड़े अफ़सरों के लिए भी ‘लीव
इनकैशमेंट’ पर टैक्स की देनदारी
महज चन्द सौ रुपये ही बैठती है। यानी, इस योजना का असली फ़ायदा ऐसे फिर मुट्ठी भर अफ़सरों
को ही मिलेगा जिनकी कर-योग्य आमदनी इतनी ज़्यादा है कि वो टैक्स से बच नहीं पाते।
निचले और मध्यम स्तर
के 95 फ़ीसदी कर्मचारियों को एलटीसी कैश वाउचर स्कीम से कोई लाभ नहीं होगा। उनके
लिए ये आकर्षक भी नहीं है क्योंकि एक रुपया पर लागू टैक्स बचाने के लिए उन्हें तीन
रुपये खर्च करने होंगे। पूरी स्कीम को अलोकप्रिय बनाने और वित्त मंत्री के सपनों
पर पानी फेरने के लिए यही पहलू पर्याप्त साबित होगा। साफ़ है कि वित्त मंत्री भले
में खुशफ़हमी पाले रखें कि सरकारी या निजी क्षेत्र के सभी कर्मचारी उनके ‘तोहफ़े’
पर टूट पड़ेंगे, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता।
कर्ज़
लें, खर्च करें और उत्सव मनाएँ
वित्तमंत्री ये भी चाहती
हैं कि सभी केन्द्रीय कर्मचारी 31 मार्च
2021 तक सरकार से 10,000 रुपये तक
का ब्याज़-मुक्त कर्ज़ लें और इसे खर्च करके उत्सव मनाएँ। इसे ‘स्पेशल
फ़ेस्टिवल एडवांस स्कीम’ कहा
गया। सातवें वेतन आयोग की जनवरी 2016 से लागू सिफ़ारिशें से पहले कर्मचारियों को
साल में एक बार 7,500 रुपये तक के ‘फ़ेस्टिवल
एडवांस’ सुविधा मिलती थी। उसे ही सिर्फ़
मौजूदा वर्ष के लिए 10,000 रुपये बनाकर पुनर्जीवित किया गया है। इसकी किस्तें 10
महीने तक कर्मचारियों के वेतन से काटी जाएगी।
अब समझते हैं कि यदि
सरकार ने 10,000 रुपये को 10 महीने के लिए 6 प्रतिशत ब्याज़ पर देने की पेशकश की
होती तो लाभार्थी कितना ब्याज़ चुकाते?
ईएमआई के फ़ॉर्मूले के मुताबिक़, यदि 1028 रुपये महीने की किस्त हो तो 10,000
रुपये के कर्ज़ पर 10 महीनों में कुल 10,280 रुपये चुकाने पड़ेंगे। साफ़ है कि ब्याज़-मुक्त
कर्ज़ से 28 रुपये महीने या 10 महीने में 280 रुपये की राहत मिलेगी। ये राहत एक
रुपया रोज़ भी नहीं है। यहाँ 6% ब्याज़-दर
की कल्पना इसलिए है क्योंकि किसान क्रेडिट कार्ड पर ब्याज़ दर 4 प्रतिशत है। इसमें
तय वक़्त पर कर्ज़ उतारने वालों को अतिरिक्त राहत भी मिलती है।
आँकड़ों
की बाज़ीगरी
अब यदि हम मान भी लें
कि एक रुपया रोज़ वाले ब्याज़-मुक्त कर्ज़ का सुख लूटने के लिए सभी 48 लाख केन्द्रीय
कर्मचारी ‘फ़ेस्टिवल एडवांस’
पर
टूट ही पड़ेंगे तो भी इससे अर्थव्यवस्था में रोज़ाना 48 लाख रुपये ही खर्च होंगे। महीने
भर के लिए ये रकम 13.44 करोड़ रुपये होगी तो दस महीने में 134 करोड़ रुपये। दूसरी
ओर, यदि सभी 48 लाख कर्मचारी इसी महीने 10,000 रुपये का ‘फ़ेस्टिवल
एडवांस’ ले लें तो भी सरकार को
एकमुस्त सिर्फ़ 4,800 करोड़ रुपये का ही कर्ज़ देना पड़ेगा।
केन्द्र सरकार ने इस
साल 200
लाख करोड़ रुपये की जीडीपी का अनुमान लगाया
था, हालाँकि लॉकडाउन के बाद आये आँकड़ों को देखते हुए वित्त वर्ष के अन्त तक भारत
की जीडीपी 100-110 लाख करोड़ रुपये के आसपास ही सिमटने की उम्मीद है। इसीलिए ज़रा
सोचिए कि जीडीपी के लिए 4,800 करोड़ रुपये यानी क़रीब 0.04 प्रतिशत हिस्सेदारी वाला
वित्त मंत्री का ‘कर्ज़ मुक्त पैकेज़’
कैसा
धमाका पैदा कर पाएगा? ज़ाहिर है, अर्थव्यवस्था
हो या सरकारी कर्मचारी, दोनों को ही वित्तमंत्री सिर्फ़ झाँसा ही परोस रही हैं।
12,000
करोड़ रुपये का हवाई क़िला
वित्त मंत्री का ये
कहना सही है कि ढाँचागत खर्चों से न सिर्फ़ अल्पकाल में बल्कि भविष्य में भी जीडीपी
(सकल घरेलू उत्पाद) बेहतर बनती है। इसके लिए उन्होंने राज्यों को 12,000 करोड़
रुपये को भी ब्याज़-मुक्त कर्ज़ वाला पैकेज़ दिया है। इस कर्ज़ की वापसी 50 वर्षों
में होगी। इससे राज्यों के पूँजीगत खर्चों यानी कैपिटल एक्सपेंडीचर में जोश भरा
जाएगा। हालाँकि, इस रकम की
‘विशालता’
भी बहुत रोचक है।
12,000
करोड़ रुपये में से 2,500 करोड़ रुपये का पहला हिस्सा पूर्वोत्तर के 8 राज्यों के
अलावा उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के लिए है, तो 7,500 करोड़ रुपये का दूसरा
हिस्सा बाक़ी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों का है, इसे वित्त आयोग के उस
फ़ॉर्मूले के मुताबिक बाँटा जाएगा जिससे राज्यों के बीच केन्द्रीय राजस्व बँटता है।
तीसरे हिस्से के रूप में 2,000 करोड़
रुपये उन राज्यों के लिए होंगे जो ‘आत्मनिर्भर’
पैकेज़ वाले चार में से तीन सुधारों को साकार करेंगे। अभी तो ये सुधार खुद ही बहुत
बोझिल हैं। लिहाज़ा, जब तस्वीर साफ़ होगी तब अर्थव्यवस्था में 2,000 करोड़ रुपये
की माँग नज़र आएगी।
12,000 करोड़ रुपये
वाले पैकेज़ में सबसे विचित्र है 7,500 करोड़ रुपये वाला दूसरा हिस्सा। क्योंकि
इसमें पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा,
झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, आन्ध्र
प्रदेश, तेलंगाना, पुडुचेरी, तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों के अलावा लक्षद्वीप,
अंडमान-निकोबार, दादरा नागर हवेली, चंडीगढ़, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख जैसे केन्द्र
शासित प्रदेशों की हिस्सेदारी होगी। ज़ाहिर है, 7,500 करोड़ रुपये का हाल ‘एक
अनार सौ बीमार’ वाला ही होगा।
कुलमिलाकर, ‘डिमांड इंफ़्यूज़न’ पैकेज़ की समीक्षा से साफ़
है कि ‘आत्मनिर्भर पैकेज़’ की तरह ये भी फ़ुस्स पटाखा ही साबित होगी। इससे तो
ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री ने वित्त मंत्री को एक के बाद एक, ऐसे ‘फ़्लॉप पैकेज़’ के एलान की ज़िम्मेदारी दी
है, जिसका ज़मीनी हश्र ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ वाला ही हो। या फिर,
सरकार ठाने बैठी है कि हिन्दुत्ववादी अफ़ीम के नशे में चूर जनता को हवाबाज़ी भरे
पैकेज़ों से ही बहलाना चाहिए कि ‘सब चंगा सी’। वर्ना, 28,000 करोड़ रुपये के पैकेज़ की बदौलत अर्थव्यवस्था
में माँग बढ़ने का चमत्कार तो सिर्फ़ ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपनों’ में ही सम्भव है।