अमेरिकी टैरिफ से चमड़ा उद्योग संकट में, रूस और अफ्रीका में नए बाजारों की तलाश

भारत का चमड़ा और फुटवियर उद्योग एक बड़े संकट का सामना कर रहा है। अमेरिका द्वारा भारत के प्रमुख चमड़ा और फुटवियर निर्यातों पर 50% का भारी टैरिफ लगाने से घरेलू उद्योग में चिंता की लहर दौड़ गई है। काउंसिल फॉर लेदर एक्सपोर्ट्स (CLE) के राष्ट्रीय अध्यक्ष, आर. के. जालान के अनुसार, इस कदम से लगभग 90% तक का व्यापार प्रभावित हो सकता है। कानपुर में CLE की एक बैठक में बोलते हुए, जालान ने बताया कि निर्यातक पहले से ही वैश्विक खरीदारों के दबाव में हैं, जो कीमतों में 20-25% की कटौती की मांग कर रहे हैं।

इस चुनौती से निपटने के लिए, भारतीय चमड़ा उद्योग अब रूस और अफ्रीकी देशों जैसे नए बाजारों में विस्तार की संभावनाएं तलाश रहा है। जल्द ही रूस और अफ्रीका के लिए व्यापारिक प्रतिनिधिमंडल भेजे जाएंगे, जिनकी अगुवाई रूस में वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल द्वारा किए जाने की उम्मीद है। इसके अलावा, अफ्रीकी देशों में भी खरीदार-विक्रेता बैठकों की योजना बनाई जा रही है। जालान ने कहा, “नए बाजारों में पैठ बनाना कोई त्वरित प्रक्रिया नहीं है,” उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अमेरिका में भारतीय चमड़ा उत्पादों की लंबे समय से मौजूदगी के कारण यह अचानक लगाया गया टैरिफ विशेष रूप से विघटनकारी है।

नए बाजारों की चुनौतियां और अवसर

नए बाजारों में प्रवेश करना आसान नहीं है। निर्यातक प्रेरणा वर्मा ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि उत्पादों को नए बाजारों के हिसाब से ढालना होगा। उन्होंने बताया, “जो स्टाइल अमेरिका या यूरोप में सफल हैं, ज़रूरी नहीं कि वे रूस या जापान में भी पसंद किए जाएं।” जूते के आकार, डिजाइन की प्राथमिकताएं और उपभोक्ता के रुझान हर क्षेत्र में अलग-अलग होते हैं। उद्योग को उम्मीद है कि यह टैरिफ अस्थायी होगा और सरकार 20-25% का समर्थन पैकेज देगी।

CLE के पूर्व अध्यक्ष जावेद इकबाल ने चेतावनी दी कि नए बाजार पहले से ही संतृप्त और प्रतिस्पर्धी हैं। उन्होंने कहा, “इसके अलावा, हर जगह खरीदार कीमतों में रियायत मांग रहे हैं, जिससे मामला और भी जटिल हो जाता है।” हालांकि, CLE के वर्तमान अध्यक्ष असद इराकी ने बताया कि ब्रिटेन के साथ भारत के मुक्त व्यापार समझौते का भी नए अवसरों के लिए लाभ उठाया जाएगा।

घरेलू बाजार से उम्मीदें

निर्यात में होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए उद्योग घरेलू बाजार में भी अवसर देख रहा है। जावेद इकबाल ने बताया कि भारत में वर्तमान में प्रति व्यक्ति जूते की खपत केवल 1.8 जोड़ी सालाना है, जिसमें से अधिकांश चीन से होने वाला सस्ता आयात है। इस खपत को बढ़ाकर प्रति व्यक्ति दो जोड़ी करने की योजना है। उनका मानना है कि इस वृद्धि से निर्यात में आई कमी से होने वाले नुकसान की आंशिक भरपाई की जा सकती है।

अमेरिका में पुरुषों के लिए बढ़ता रोजगार संकट

विडंबना यह है कि जिस अमेरिका की नीतियों से भारतीय उद्योग जूझ रहा है, वह खुद एक आंतरिक श्रम संकट का सामना कर रहा है, खासकर अपने युवा पुरुषों को लेकर। सार्वजनिक रूप से उपलब्ध आंकड़ों का एक नया विश्लेषण दिखाता है कि युवा अमेरिकी पुरुषों में बेरोजगारी बढ़ रही है और श्रम बल में उनकी भागीदारी स्थिर हो गई है। सेंटर फॉर अमेरिकन प्रोग्रेस की अर्थशास्त्री सारा एस्टेप ने बताया, “पिछले एक साल में, युवा पुरुषों के लिए हालात और खराब हुए हैं।” हालांकि बेरोजगारी का स्तर ऐतिहासिक रूप से अभी भी कम है, लेकिन “चीजें निश्चित रूप से गलत दिशा में आगे बढ़ रही हैं।”

श्रम बल में पुरुषों की कम भागीदारी का असर उद्योगों पर कर्मचारियों की कमी और सामाजिक सुरक्षा के खजाने पर पड़ सकता है। काम न करने वाले पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य और खुशी में भी गिरावट का खतरा है। प्यू रिसर्च सेंटर के एक विश्लेषण में पाया गया कि 2021 में, 25 वर्षीय पुरुष अपनी पिछली पीढ़ियों की तुलना में पूर्णकालिक काम करने और वित्तीय स्वतंत्रता प्राप्त करने में पीछे थे।

व्यावसायिक शिक्षा और बेहतर नीतियां बन सकती हैं समाधान

युवा पुरुषों के श्रम बल से बाहर रहने का एक बड़ा कारण विकलांगता भी है। 22 से 27 वर्ष की आयु के पुरुषों में श्रम बल में भाग न लेने का कारण विकलांगता बताने वालों का औसत हिस्सा 4% था, जबकि महिलाओं में यह 2% था। इसकी वजह पुरुषों का ऐसे कामों में अधिक होना हो सकता है जहां चोट लगने का खतरा ज्यादा होता है।

इस समस्या के समाधान के लिए युवा पुरुषों को माध्यमिक शिक्षा के बाद व्यावसायिक स्कूलों (vocational schools) की ओर प्रोत्साहित करना एक कारगर उपाय हो सकता है। आंकड़े एक सकारात्मक रुझान भी दिखाते हैं: 2022 से 2025 तक व्यावसायिक स्कूलों में युवा पुरुषों के नामांकन में उछाल आया है। इसके अलावा, विकलांग श्रमिकों के लिए बेहतर अवसर और वेतन सुनिश्चित करने वाली नीतियां भी महत्वपूर्ण हो सकती हैं। जैसे कि, उप-न्यूनतम मजदूरी (subminimum wage) जैसे प्रावधानों को खत्म करना, जो नियोक्ताओं को विकलांग श्रमिकों को संघीय न्यूनतम मजदूरी से कम पर रखने की अनुमति देता है, एक बड़ा बदलाव ला सकता है। सारा एस्टेप का मानना है, “अगर मजदूरी बढ़ती है, तो यह आम तौर पर उन लोगों को श्रम बल में खींचती है जो पहले इससे बाहर थे।”