बिल्डर्स और डेवेलपर्स होना कोई मज़ाक नहीं है! आपके पास थोड़ा सा पैसा हो और बड़ी से बड़ी बेईमानी करने के लिए बड़ा सा कलेज़ा हो तो आप उम्दा बिल्डर बन सकते हैं! ये ऐसा गोरखधन्धा है जिसमें आप महज़ कुछ करोड़ रुपये लगाइए और अरबों की ज़ायदाद के मालिक बनकर ऐश कीजिए! चाहें तो थोड़ा-बहुत काम भी कर सकते हैं, ताक़ि आपकी दुकान चलती रहे! ताक़ि आप ख़रबों कमा सकें! बिल्डर बनते ही नेता, अफ़सर, इंज़ीनियर, पुलिस, अदालत – सब पर आपका रौब चलने लगेगा! लाखों-करोड़ों की ज़मीन आपको सरकारी एजेंसियाँ इतनी आसान शर्तों पर दे देंगी कि चाहें तो आप कभी उन शर्तों को पूरा नहीं करें! एक अदद घर का सपना देखने वालों से भी आप झूठे वादे करके हज़ारों करोड़ रुपये जमा कर लीजिए! फिर अपनी शर्तों पर घर बनाइए, वो भी यदि मज़बूरी हो तो, वर्ना ग्राहकों के पैसों से ही अन्य ज़मीनें ख़रीदते रहिए! ज़्यादातर बिल्डर्स यही करते हैं!
ग्राहक यदि आपके पास रोता-बिखलता आये तो आपके गुर्गे उसे दुत्कार या मार-पीटकर भगा देंगे! आपको कोई तकलीफ़ नहीं होगी! एकाध कोई सिरफिरा होगा तो वो कोर्ट-कचहरी करेगा, उससे निपटने के लिए आपके पास लीगल डिपार्टमेंट तो होता ही है! वो निपटेगा, ऐसे सारे झंझटों से! वही आपको बताएगा कि यदि बद्किस्मती से आपके ख़िलाफ़ कोई अदालती आदेश पारित हो जाए, तो भी आपके चेहरे पर शिकन नहीं आनी चाहिए! आपके वकील उस ‘दुष्ट ग्राहक’ को अदालतों के इतने चक्कर कटवाएँगे कि उसका हौसला ही पस्त हो जाएगा! उसकी दुर्गति देखकर कोई और ग्राहक आप जैसे ‘शेर से टकराने’ की सपने में भी नहीं सोचेगा! इस तरह, आपकी नाजायज़ सल्तनत को पूरा का पूरा सरकारी तंत्र अपना राष्ट्र-धर्म समझकर चलवाता रहेगा! आपको तो बस, गाहे-बगाहे उनके मुँह में चारा डालते रहना है!
सही मायने में बिल्डर का असली काम ही है कि उन सरकारी लोगों के मुँह में चारा डालते रहना, जो क़ानून की दुहाई देते हुए अपनी चोंच खोलने की कोशिश करें! उधर, पीड़ित ग्राहकों की सुनवाई कहीं नहीं है! क्योंकि क़ानून के रखवालों को सबसे अच्छी तरह से मालूम होता है कि कैसे वो रखवाली करने के अपने काम से कन्नी काट सकते हैं! पीड़ित ग्राहकों की आँसू पोंछना तो दूर, कोई उनकी आवाज़ भी नहीं उठाता! मीडिया मालिकों को भी बाक़ायदा ‘सेट’ करके रखा जाता है! ताक़ि वो पीड़ित ग्राहकों की आवाज़ तक नहीं उठा सकें! ख़ुद को बदनामी और छीछालेदर से बचाने के लिए मीडिया मालिकों से सीधे डील की जाती है! उन्हें ‘बिज़नेस’ के रूप में विज्ञापनों का चढ़ावा चढ़ाया जाता है. कभी-कभार कुछ फ्लैट्स भी ‘कॉर्पोरेट रिबेट’ के साथ बेच दिये जाते हैं.

बिल्डर्स की कारस्तानियों से सिर्फ़ इतना साबित होता है कि वो हिमालय की तरह अजेय हैं. कोई उनसे पार नहीं पा सकता! क्योंकि देश में क़ानून से तो सिर्फ़ कमज़ोर डरता है, मज़बूत तो उसे ठेंगे पे रखता है..! बिल्डर तो अपने प्रोजक्ट्स से भी लाखों गुना ज़्यादा मज़बूत होते हैं! इसीलिए उनका कभी बाल तक बाँका नहीं होता! हालाँकि, उनकी जमात में एक से बढ़कर एक नंगे भरे हुए हैं! सभी आपस में बेहद संगठित हैं. सबका ढर्रा एक जैसा है. सभी ग्राहकों को रुलाते हैं. नेताओं और सरकारी तंत्र का बिल्डर समुदाय बहुत लाड़ला होता है. क्योंकि एक ओर, इनका ‘निर्माण क्षेत्र’ अर्थव्यवस्था में तेज़ी लाता है. ग़रीबों को रोज़गार देता है. इससे सीमेन्ट-सरिया और भवन निर्माण सेक्टर को धन्धा मिलता है. सरकारें ख़ूब टैक्स बटोरती हैं. दूसरी ओर, काले धन को ठिकाने लगाने के लिए बिल्डर्स को बेहतरीन अड्डा माना जाता है. तीसरी ओर, यही तबक़ा सभी पार्टी के नेताओं को नेतागिरी चमकाने के लिए करोड़ों-अरबों रुपये का चन्दा मुहैया करवाता है. ये आलम अखिल भारतीय है!
लेकिन रात कितनी भी लम्बी हो, सुबह तो होती ही है! ऐसी ही एक सुबह की चाहत लिये दिल्ली के दो जाँबाज़ ग्राहकों ने यूनीटेक कम्पनी के मालिकों को एक दिन के लिए ही सही जेल की हवा तो खिला दी! जेल जाना भी किसी फ़िल्मी ड्रॉमा जैसा था! सालों-साल तक ‘तारीख़-पे-तारीख़’ के बाद अदालत ने यूनीटेक के चार मालिकों को 14 दिन की न्यायिक में भेजने का आदेश सुनाया. ये कहकर ज़मानत की अर्ज़ियाँ ख़ारिज़ कर दीं कि अदालत में अंडरटेकिंग देने के बावजूद एक करोड़ रुपये की ख़ातिर यूनीटेक ने जानबूझकर क़ानून का मज़ाक उड़ाया. मज़िस्ट्रेट साहब बहुत जानकार थे. तभी तो उन्होंने कहा कि बिल्डरों के ख़िलाफ़ अव्वल तो आसानी से एफआईआर तक दर्ज़ नहीं होती! फिर ग़ैर ज़मानती वारंट के बावजूद पुलिस इन्हें पकड़ नहीं पाती! ये तो सिर्फ़ अदालत की सख़्ती से ही क़ाबू में आये हैं!
लेकिन पड़ोसी सेशंस कोर्ट ने चन्द मिनटों में ही तय कर लिया कि ‘बड़ी हस्तियों’ का क़सूर चाहे जो हो, जमानत पाना उनका हक़ है! हमारी अदालतें पीड़ित के हक़ के लिए द्रवित हों या ना हों लेकिन अपराधियों के हक़ की अनदेखी नहीं कर पाती हैं! मोटी-मोटी फ़ीस लेने वाले भारी-भरकम वकील ऐसा होने नहीं देते! इसीलिए यूनिटेक के ‘चन्द्राओं’ फ़टाफ़ट जमानत मिल गयी. लेकिन बद्क़िस्मती से वक़्त रहते रिहाई के क़ाग़जात पूरे नहीं हुए. जेल जाना पड़ा. यूनीटेक के ‘ख़ुदा’ उतने नसीब वाले नहीं थे जैसे सलमान भाई थे, जिन्हें मुम्बई हाईकोर्ट ने इतनी जल्दी ज़मानत दी थी कि इतिहास ही क़ायम हो गया! वैसे झटपट जमानत हासिल करके यूनिटेक के ‘चन्द्राओं’ ने भी तो कीर्तिमान बनाया ही! पूरे प्रसंग से यही साबित हुआ कि क़ानून से तो सिर्फ़ कमज़ोर डरता है, मज़बूत तो उसे ठेंगे पे रखता है!
अब बात उस हैबिटैट प्रोजेक्ट की जिसमें यूनिटेक को ये दिन देखने पड़े! 25 एकड़ वाले इस प्रोजेक्ट में 18 टॉवर्स में विभिन्न श्रेणियों के 902 फ्लैट्स बनने थे. क़ीमत थी 43 लाख से 75 लाख रुपये के बीच. इसकी ज़मीन अलॉट हुई नवम्बर 2004 में, लीज़ डीड पूरी हुई फरवरी 2005 में, पहला पार्ट कम्पलीशन मिला अक्टूबर 2008 में और दूसरा जून 2010 में! लेकिन वक़्त पर घर नहीं मिला तो पीड़ितों ने राज्य उपभोक्ता अदालत से गुहार लगायी. वहाँ से अक्टूबर 2014 तक 11 फ़ीसदी ब्याज़ समेत ग्राहक को पैसा लौटाने का आदेश हुआ लेकिन यूनिटेक ने आदेश को अपने ठेंगे पर रखा. तब पीड़ित ने फौज़दारी का मुक़दमा किया. इसी के तहत ‘चन्द्राओं’ को जेल में डालने का आदेश हुआ.

यूनिटेक एक दुर्दान्त बिल्डर है! इसी हैबिटैट प्रोजक्ट में ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण का उस पर 65 करोड़ रुपये बकाया है. इसके अलावा वो किसानों की ज़मीन के मुआवज़े का भी 28 करोड़ रुपये दबाये बैठा है. लेकिन यूनिटेक के सुख-चैन में कोई ख़लल नहीं पड़ा, क्योंकि दमदार लोगों के आगे हमारे क़ानून हमेशा से बेदम साबित होते रहे हैं! इसीलिए ताज़्ज़ुब तो उस अफ़सर पर है जिसने नवम्बर 2014 में ग्रेटर नोएडा के ही म्यू-2 सेक्टर में यूनिटेक को दिये गये 100 एकड़ के प्लॉट का आबंटन रद्द कर दिया! 2006 के इस आबंटन को लेकर यूनिटेक पर प्राधिकरण का 1100 करोड़ रुपया बकाया था! ये यूनिटेक की हस्ती ही थी जिसने नौ साल तक आबंटन को रद्द होने से टाले रखा!
बहरहाल, यूनिटेक जैसी लाखों कहानियाँ देश के हरेक छोटे-बड़े शहर में मौज़ूद है. उम्मीद की जा सकती है कि संसद के अगले सत्र में सरकार रियल स्टेट बिल लाकर इस पूरे सेक्टर को नियंत्रित करने का ज़रिया बना देगी. नये क़ानून के तहत देश में टेलीकॉम, बीमा, बिजली, बैंकिंग और शेयर बाज़ार की तरह रेगुलेटर बनाया जाना है. मनमोहन सरकार की ओर से लाया गया ये बिल संसद में दो साल से अटका पड़ा है. अब यदि मोदी सरकार ने इस क़ानून को बना दिया तो 26 बड़े शहरों में चल रहे 17 हज़ार से ज़्यादा प्रोजेक्ट्स के करोड़ों ग्राहकों को राहत मिलेगी. देश के रियल स्टेट सेक्टर में क़रीब 3.5 लाख करोड़ रुपये लगे हैं. इससे हर साल करीब 10 लाख लोगों को उनका घर मिल पाता है. 2012 के एक सरकारी अनुमान के मुताबिक़, देश के शहरों में रहने वाले क़रीब 2 करोड़ परिवारों को पास अपना घर नहीं है. अनुमान है कि अगले 30 साल में भारत की शहरी आबादी दोगुनी होकर 90 करोड़ तक जा पहुँचेगी. इसीलिए रियल स्टेट सेक्टर को सुधारे बग़ैर हालात नहीं बदले जा सकते.